गुरुवार, अगस्त 06, 2009

शकुन्तला दुतीय खंड (५)

सोचत हैं पशु -पांखी सबै , हमरे सुख कै दिनवां हरि गइनै , रोवत -धोवत आठ चलें, सगरो बन कै कोनवाँ भरि गइनै । देई के पानी ,दुलारी हमें नन्हवाँ विरवा,मिरगा डरि गइनै , आगे खड़ा पेड़वा लरकै ,सगरो ,पतिया फुलवा झरि गइनै ॥

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