गुरुवार, अगस्त 06, 2009

शकुन्तला द्वितीय खंड (2)

घेरत बा बदरा अँचरा पुतरी ,बदरी बनि चुवती आवै ।
ओही में चान हेराइल बा ,सुधिया तरई तरे ऊवति आवै॥
लागति बा ई बयार हमै जेस तोरे सिवाने के छुवती आवै ।
यइसे सनेही पे बज्र परै जे न जीयति आवै न मुवति आवै॥
ई अलसाइल बा देहियाँ अंखिया न झपे, नहि आवै ओहांई ।
दाबि के राखे दूनो ओठवा , भीतरे भितरा भरि आवै रोवाई ॥
आँचर टोंग दवाई मुहां बपुरी ; बनि बइठल बाय लुकाई ।
के के अंगोरति पुछै बदे रतिया चढ़ी आधी मुडेरे पे आयी ॥
सोचे मनै मन बात इहै , फिर से धनु बान चलावत आवा ।
चान - तरइया न देखै तूहैं ; सबके अंखिया से बचावत आवा ॥
सोवली आस , हताश हिया , अल्हरी निनियाँ तूँ तोरावत आवा ।
बालू भले बा करेजे के घाट तूँ ; नेह नाय चलावत आवा॥
तीसर बा पहरा रतिया कै अकेले-अकेले बड़ी डर लागै ।
ई सुनसान कै तान -बेतान कि साथ मोरे अब ना केहू जागै ॥
देखा हमै न सतावा बहुत मोर कांच करेज बड़ा अनुरागै ।
लागत बा हमरी पजरी तोहरी , चिठिया केहू बाँचि के भागै ॥
हे पुरुवंश लिलारे कै लाजि, मोरी लजिया कै लुटाया न पानी
राजा हया तो नियाव करया, बिसराया न अन्न ,भुलाया न पानी ॥
ई मेहरारू कै इज्ज़ति बा अंगना -अंगना मे लुटाया न पानी ।
पानी तरै -तर बहै दिहा कहूँ माथे की ओर चढ़ाया न पानी ॥
बांक लगावत बा मुरगा अब लागति बा भिनसारे कै बेला ।
ऊवत बा शुकवा पछिलहरे कै , लागत बा उजियारे कै बेला ॥
पूजन - पाठ औ जोग कै जूनि बा लागत प्रान अधार कै बेला ।
रात गइल ,अब आइल बा सबके अंगना औ दुवारे कै बेला ॥
कइसन सूरज आज ऊई ,ओकरे घमवाँ से निचोरब सोना ।
बेंचि बाज़ार मंगाई के माहुर ,खाई के सूतब धई एक कोना ॥
माटी कै बा जिनगी मिलि जाई कबों मटियै में ई माटी कै लोना ।
जीयै के ना ,चढ़ी बोलत बा हमरे मथवा तोर जादू औ टोना ॥
यइसन सोचि- बिचार में बूडलि जाति शकुन्तला घूललि जाले।
झुर भइल लपची देहियाँ ,सुखली डरिया बनि झूललि जाले॥
कइसन खेल करैं भगवान् कि तोपलि बात ऊ खुललि जाले ।
ध्यान करैं जेतना दुसरे कै वही तरे आपन भूललि जाले ॥

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