गुरुवार, अगस्त 06, 2009

शकुन्तला प्रथम खंड (३) शकुन्तला मिलन

कबहू अवंरा, कबहूँ भँवरा , कबहूँ केहू दोष लगावत बाटू ।
कबहूँ देहियाँ कै कसल बन्हना , हमसे कहि ढील करावत बाटू ॥
अब लागे जवानी कै पानी तुह्नै , यतनै बस जानि न पावत बाटू ।
हमे लागत बा सपना में कहूँ , घर चान के गाँव बसावत बाटू ॥
ई कजरी -कजरी अंखिया ,गोरके मुंहवा पे कहाँ फ़िर पईहैं ।
तोरे बारे के छाहें बड़े मन से ,गर्मी ,बरसात ,जुडात बितईहै ॥
कान्हे कै भार , औ देहीं कै अईठन दूनो मिटइहै न तौ कहाँ जईहैं।
बोलवाई ले राजा दुष्यंत के तैं, तोर भवरन से झगरा तोरवेहै ॥
आपन नांव सुनै जब कान से ,राजा मने -मन फूटै बतासा ।।
दूनौ हाथ उठाय कहैं ,भगवान कै ई अजगूत तमासा ॥
हारत जालें करेजे कै पासा ,बाढ़त जाले बियाहे कै आशा ॥
साटत जात करेज , करेज से , प्रीति भईल जस आम कै लासा ॥
अवसर जानि, समय पहचान के, राजन आड़े से बाहर अइनै ।
सन्मुख देखि के तीन सहेलरि ,फेरी मुहाँ ,मन में शरमइनै ॥
राजा के देखत है नयना ,देखते रहनै देखते रही गइनै ।
छै छै चकोर एकोर लखै, एक चान मुहां topatai रहि गईनै ॥
ऊँच घराना कै लागत है , अपनी भलमन्सी दबायल बाटे।
मोतिन माल लदल कन्हवा, सोनवा - चनियाँ से दबायल बाटे॥
लागत हैं परदेशी सखी ,कहीं जात की राह भूलायल बाटे ।
पूछल जाय तनी यन से ,के - के खोजत - हेरत आयल बाटे ॥
लाल भइल कजरी अंखिया , तोरे लाले लिलारे से पानी दुरावा।
ओंठ झुरायल पात भये , पुरुवा - पछुवाँ कै बतास लगाबा ।
छोडि सँकोच बतावा हमैं, कि पियायी का पीबा खियायी का खाबा ।।
फिर पाछे बतावा हमैं तनकी चलि आया कहाँ से ,कहाँ तक जाबा?
ऊँच पहाड़ औ नीच कछार के , बीच कै ई मटियाइल ढाबा ।
दूनो के बीच देखात खड़ी , कुस - कास कै छावलि ई कुटिया बा ॥
पाती औ फूल से साजलि बा , पशु - पांखी के छोडि इहाँ भला का बा ।
चारि संखि , यतनै गुरु भाई , है गौतमी माई , औ काडव बाबा ॥
पुंछत जालू सवाल , सवाल पे , ल्या तोहके ई बतावत बाटी ।
देखि शकुन्तला के तिरछे ,कहै बाति न छिपावत बाटी ॥
क्षत्तरी राजा दुष्यंत हयीं, द्वीज - धाम के शीश बदे ;
इहाँ धावत - धूपत आवत बाटी ॥
काने दुष्यंत , पडे त शकुन्तला , आगि पसीना में सीझत जालीं ।
आँचर ओट दै लाजी करै, गगरी भर पानी से भीजत जालीं II
कुटि हमार इहो सुननै ,तर हाथ गते - गत मीजत जालीं ।
खीझत जालीं सहेली के ऊपर ; राजा के ऊपर रीझत जालीं ॥
इ घुघुरार गरे तक बार ,औ ; काने में सोहत कुंडल बाला ।
आंखि नचाई ,बड़ी चतुराई से , बोलै त कान में हीलत जाला ॥
मूछि मुरेरी गंठी देहिंयाँ ,गजछाती ,के ढ़ापि न पावै दुसाला ।
जेकर हाथ परी तोरे हांथ ,ऊ ; का जानि हैं तकदीर कै ठाला॥
बूद्ती औ उतिराति शकुन्तला ; पूर का मोर मनोरथ होई ।
राजा तरै- तर रोकै मना , जिनगी यहि काज अकारथ होई ॥
आज कहै ; बड भागि बा ई ; एक काम करा परमारथ होई ।
आय पुजारी दुवारी खड़ा ; तनी देव बोलावा कृतारथ होई ।
बोली प्रियम्बदा प्रेम कै बानी ; तरे दंतवा त्रिन नोक दबाये ।
बाबा त बाटे न आज इहाँ ; कहिके गइने केहू धाम नहाये ॥
छोड़ी के गइनै हमैं सबके ,अपनी धेरिया बदे पुण्य कमाए ।
चारि दिना रुका आवत होइहैं , बिना अइले अब पइबा न जाये ॥
राजा कहै एक बात बतावा , मोरे मन में सुन बाजत तारी !
गावत गइनै इहै पुरखे गुन, बाबा बड़ा है अचारी विचारी ॥
जोगी के कान्ही खेलै बिटिया ,इहै बाति सोहाती ना लागत भारी ।
बाप भला कैसे बननै ;जिनगी भर बाबा रहे ब्रहमचारी ॥

1 टिप्पणी: