गुरुवार, अगस्त 06, 2009

शकुन्तला प्रथम खंड (१)

बालेपना पर बाघ से खेलत , शेर से मारत है किलकारी ।
बान्हत है छेगरी के तरे , दंतवा गिनि डारत ओठ उघारी ॥

तेज प्रताप कै खानि रहे , बचकानी क बा बणी कीरति भारी ।
तेकर बाप बने है दुष्यंत , शकुन्तला रानी बनी है महतारी ॥

आज तनी इतिहास उलाटी , औ हेरत खोजत कीं अनुमानी ।
न सोझवे पतियाती बा बाति, औ ना उतरे गटई तर पानी ॥
एक ते सोने के टाठी में खात है , दूसर तौ वन-पात में खानी ।
इ राजा के बेटा , ऊ साधू के पाललि, कैसे बनें भला दूनों परानी ॥

चंदर वंश कै शोभा बने , औ राजा ययाति के मान कै थाती ।
पौरव वंश के पुण्य प्रकाश , तरे झलकै बनि दीप कै बाती ॥
राजा दुष्यंत कै दुर्ग धुजा , लहरै लखि फूलत इन्द्र कै छाती ।
चाहें दुवारे असाढ़ झरे , चाहे आँगन में बरसावें सेवाती ॥

राजा सबै लड़ी हारी गए , नहि रोकि सकै केहू एक झकोरा ।
बइठे सिंहासन पे दुनिया के औ, तीनहू लोक पिटाये ढिढोरा ॥
बीते दिना यईसे - वईसे , इतिहास लिखै लई कागद कोरा ।
खेलै शिकार चली वन में , सपना उमड़ी, पुतरी परै डोरा ॥

सोचि विचार में राजा दुष्यंत हैं , खेलै शिकार चलै जंगल में ।
सेन सजी हथिनापुर की , सब साथ चलै अगले बगले में ॥
जोडि के गोड़ भगै हिरना , नहि बान लगै अगले - पिछले में ।
धावत धूपत धूसर भै मुंह , भेद न बा जगले सुतले में ॥

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