गुरुवार, अगस्त 06, 2009

शकुन्तला और दुष्यंत की प्रेमकथा भोजपुरी भाषा में



शकुन्तला और दुष्यंत की प्रेमकथा भांति - भांति के रंगों से सजी हुई है। खासकर इस प्रेमकथा के विरह वर्णन का तो कोई विकल्प ही नही दिखाई देता है। बस इसी को सहेजा है आपके इस भाई ने शकुन्तला और दुष्यंत की प्रेमकथा भोजपुरी भाषा में ......
डॉ ईश्वरचंद्र त्रिपाठी
कृपया अपने सुझाव मेरे मोबाईल नम्बर ९४५५८८५८६६ या मेरे ईमेल पते itshakuntla@gmail.com पर अवश्य दे । हमें आपके अमूल्य सुझावों का इंतजार रहेगा । बस इसी आशा के साथ
आपका अपना अनुज ......
डॉ ईश्वरचंद्र त्रिपाठी
व्याख्याता ( बी .एड .विभाग )
श्री दुर्गा जी स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय , चण्डेश्वर, आजमगढ़

भोजपुरी शकुन्तला (प्रस्तावना)

माटी के बोली में , माटी कै बाटि,
औ माटी कै गीत लिखै चलली हैं।
भाव कै सूघर आँगन में ,
अंगुरी धै के घुसकै चलली हैं ।।
बा बचकानी कै आंखि अजान ,
तबौ इ जहान लखै चलली हैं ।
तानि निशान न जानी कबौ,
तबो तीर कमान सिखै चलली हैं ।।
सन्मुख ऊची अदालत के ,
पग ना खड़ीयाय हहाय करेजा ।
भाव - कुभाव बा जौन मोरे ,
देहली बहिराय देखाय करेजा ।।
ना जानी काव करै भगवान,
नदान हयी , न दुखाय करेजा ।
पातरि बा कविताई मोरी ,
तबो नेह दिहा तू लगाय करेजा ।।
नाँव कै कीरति बा जेकरे ,
पनियां पर पाई जे पारत आइलें ।
बाहीं कै जोर बरोर बड़ा ,
चाहे धापत,चाहे उघारत अइलें ॥
पुण्य कै टाटी संवारे जहाँ ,
वहीँ पाप अटारी उजारत अइलें ।
वहि राजा भरत के भारत में ,
घर भर मिलिके महाभारत कइलें ॥
डॉ ईश्वरचंद्र त्रिपाठी

शकुन्तला प्रथम खंड (१)

बालेपना पर बाघ से खेलत , शेर से मारत है किलकारी ।
बान्हत है छेगरी के तरे , दंतवा गिनि डारत ओठ उघारी ॥

तेज प्रताप कै खानि रहे , बचकानी क बा बणी कीरति भारी ।
तेकर बाप बने है दुष्यंत , शकुन्तला रानी बनी है महतारी ॥

आज तनी इतिहास उलाटी , औ हेरत खोजत कीं अनुमानी ।
न सोझवे पतियाती बा बाति, औ ना उतरे गटई तर पानी ॥
एक ते सोने के टाठी में खात है , दूसर तौ वन-पात में खानी ।
इ राजा के बेटा , ऊ साधू के पाललि, कैसे बनें भला दूनों परानी ॥

चंदर वंश कै शोभा बने , औ राजा ययाति के मान कै थाती ।
पौरव वंश के पुण्य प्रकाश , तरे झलकै बनि दीप कै बाती ॥
राजा दुष्यंत कै दुर्ग धुजा , लहरै लखि फूलत इन्द्र कै छाती ।
चाहें दुवारे असाढ़ झरे , चाहे आँगन में बरसावें सेवाती ॥

राजा सबै लड़ी हारी गए , नहि रोकि सकै केहू एक झकोरा ।
बइठे सिंहासन पे दुनिया के औ, तीनहू लोक पिटाये ढिढोरा ॥
बीते दिना यईसे - वईसे , इतिहास लिखै लई कागद कोरा ।
खेलै शिकार चली वन में , सपना उमड़ी, पुतरी परै डोरा ॥

सोचि विचार में राजा दुष्यंत हैं , खेलै शिकार चलै जंगल में ।
सेन सजी हथिनापुर की , सब साथ चलै अगले बगले में ॥
जोडि के गोड़ भगै हिरना , नहि बान लगै अगले - पिछले में ।
धावत धूपत धूसर भै मुंह , भेद न बा जगले सुतले में ॥

शकुन्तला प्रथम खंड (२) शकुन्तला मिलन


नांची कुलांची भगे हिरना, नहि राजा के आवत बा घतिया में ।
जेकर पालल पोखल बा, दुलराय खड़ा ओकरी छतिया में ॥
आश्रम आगे बा साधुन कै, मोरी सेन छुटी रहिया बटिया में ।
फिर दायीं भुजा फरकै अंखियां, कहा राम का होई इहाँ कुटिया में ॥
केहूँ बोलत ना, केहू डोलत ना, इहाँ शांति भरी सगरी जगती कै ।
पीयर - पीयर धोती झुराति, पसारली बा सुघरी धरती पै॥
खात का होइहैं इहां बन में, फल फूल इहै कुछ बा गिनती के।
देखीं तनी अगवां बढ़ी के,मठ सुघर बा केहू जोगी जाती के॥
इहाँ पांति से पांति खड़े बिरवा, गह्दी पतिया हरियाइल बाटी ।
बड बेला चमेली कै फूल फरा, सेमिया चढी खूब गवाइल बाटी ॥
बा फगुनाइल यइसे मना, कट्वो पर भंवरी मोहाइल बाटी ।
जनु आज मनावत सारे दिना, हिरनी हिरना से कोहाइल बाटी॥
फिर आगे देखाती हैं तीन सहेलरे , सींचति बाग़ सजावती बाटी।
केहू प्रियम्बदा , केहू शकुन्तला ,कहि अनुसुइया बोलावति बाटी ॥
पेड़ की ओट दबाये नरेश , ई जानि यही ओर आवति बाटी ।
नाचती बाटी ,नचावती बाटी , कि चिढ़ती बाटी ,चिढावती बाटी ॥
राजा निहारति है बनि मूरति , चाहत है केतना लेई देखीं ।
टारे टरै नहिं, पारे परै नहिं , पत्थर के पिठिया पै रेखी ॥
ई सुघराईबा या ज़दुवाई बा , ऊपर से बघराई बा शेखी ।
मोर करेज धधाई कहै ,कहा , हे बिधिना ! तोर कईसन लेखी ॥
फूल कली मुंह चूमति आवै औ , नान्हें बिरौना के फेरत आवै ।
हीलल पेड़ उडल भंवरा , डरी भागे , शकुन्तला टेरति आवै ।।
दौड़ प्रियम्बदे , हे अनुसूये ! ई , देति गोहारि औ हेरति आवै ।
माई रे माई ! ई दोषी बड़ा , भंवरा तजि फूल खदेरति आवै ॥
रीझत जलै लुकाइल राजा , मनै मन खूब नचावत गोली ।
ई सुघराई दिहे बिधिना , ऊपरा दिहले मधु घोरल बोली ॥
कौन उपाय करी कईसे सजिके , उतरै अंगना मोरे डोली ।
कूदत बा पोरसा भै करेजा , औ जीभ चलै कईसे मुह खोली ॥
प्रेम तै मारत जोर बड़ा ,बड़ी पातर धीरज कै टटिया बा ।
फांसती बा मछरी के तरे , बड़ी चोखि बा छोटि भले कंटिया बा ॥
क्षत्री बंश के राजा हयी, कुल पूजल बंश कै ई बिटिया बा ।
इहाँ शादी बियाहे कै बाते कहाँ , ई तो योग रमावे बदे कुटिया बा ॥
यही ओर विचार नरेश करै, सखिया वही ओर रिझावती बाटी ।
घेरी शकुन्तला कै देहियाँ , झकझोरी ,मरोरि खिझावति बाटी ॥
ई कचलोई नई जिनगी , हसि नाचति गावति धावति बाटी ।
बाटी लगाई लगाई कहै , मुह नोचि मजाक उडावती बाटी ॥

शकुन्तला प्रथम खंड (३) शकुन्तला मिलन

कबहू अवंरा, कबहूँ भँवरा , कबहूँ केहू दोष लगावत बाटू ।
कबहूँ देहियाँ कै कसल बन्हना , हमसे कहि ढील करावत बाटू ॥
अब लागे जवानी कै पानी तुह्नै , यतनै बस जानि न पावत बाटू ।
हमे लागत बा सपना में कहूँ , घर चान के गाँव बसावत बाटू ॥
ई कजरी -कजरी अंखिया ,गोरके मुंहवा पे कहाँ फ़िर पईहैं ।
तोरे बारे के छाहें बड़े मन से ,गर्मी ,बरसात ,जुडात बितईहै ॥
कान्हे कै भार , औ देहीं कै अईठन दूनो मिटइहै न तौ कहाँ जईहैं।
बोलवाई ले राजा दुष्यंत के तैं, तोर भवरन से झगरा तोरवेहै ॥
आपन नांव सुनै जब कान से ,राजा मने -मन फूटै बतासा ।।
दूनौ हाथ उठाय कहैं ,भगवान कै ई अजगूत तमासा ॥
हारत जालें करेजे कै पासा ,बाढ़त जाले बियाहे कै आशा ॥
साटत जात करेज , करेज से , प्रीति भईल जस आम कै लासा ॥
अवसर जानि, समय पहचान के, राजन आड़े से बाहर अइनै ।
सन्मुख देखि के तीन सहेलरि ,फेरी मुहाँ ,मन में शरमइनै ॥
राजा के देखत है नयना ,देखते रहनै देखते रही गइनै ।
छै छै चकोर एकोर लखै, एक चान मुहां topatai रहि गईनै ॥
ऊँच घराना कै लागत है , अपनी भलमन्सी दबायल बाटे।
मोतिन माल लदल कन्हवा, सोनवा - चनियाँ से दबायल बाटे॥
लागत हैं परदेशी सखी ,कहीं जात की राह भूलायल बाटे ।
पूछल जाय तनी यन से ,के - के खोजत - हेरत आयल बाटे ॥
लाल भइल कजरी अंखिया , तोरे लाले लिलारे से पानी दुरावा।
ओंठ झुरायल पात भये , पुरुवा - पछुवाँ कै बतास लगाबा ।
छोडि सँकोच बतावा हमैं, कि पियायी का पीबा खियायी का खाबा ।।
फिर पाछे बतावा हमैं तनकी चलि आया कहाँ से ,कहाँ तक जाबा?
ऊँच पहाड़ औ नीच कछार के , बीच कै ई मटियाइल ढाबा ।
दूनो के बीच देखात खड़ी , कुस - कास कै छावलि ई कुटिया बा ॥
पाती औ फूल से साजलि बा , पशु - पांखी के छोडि इहाँ भला का बा ।
चारि संखि , यतनै गुरु भाई , है गौतमी माई , औ काडव बाबा ॥
पुंछत जालू सवाल , सवाल पे , ल्या तोहके ई बतावत बाटी ।
देखि शकुन्तला के तिरछे ,कहै बाति न छिपावत बाटी ॥
क्षत्तरी राजा दुष्यंत हयीं, द्वीज - धाम के शीश बदे ;
इहाँ धावत - धूपत आवत बाटी ॥
काने दुष्यंत , पडे त शकुन्तला , आगि पसीना में सीझत जालीं ।
आँचर ओट दै लाजी करै, गगरी भर पानी से भीजत जालीं II
कुटि हमार इहो सुननै ,तर हाथ गते - गत मीजत जालीं ।
खीझत जालीं सहेली के ऊपर ; राजा के ऊपर रीझत जालीं ॥
इ घुघुरार गरे तक बार ,औ ; काने में सोहत कुंडल बाला ।
आंखि नचाई ,बड़ी चतुराई से , बोलै त कान में हीलत जाला ॥
मूछि मुरेरी गंठी देहिंयाँ ,गजछाती ,के ढ़ापि न पावै दुसाला ।
जेकर हाथ परी तोरे हांथ ,ऊ ; का जानि हैं तकदीर कै ठाला॥
बूद्ती औ उतिराति शकुन्तला ; पूर का मोर मनोरथ होई ।
राजा तरै- तर रोकै मना , जिनगी यहि काज अकारथ होई ॥
आज कहै ; बड भागि बा ई ; एक काम करा परमारथ होई ।
आय पुजारी दुवारी खड़ा ; तनी देव बोलावा कृतारथ होई ।
बोली प्रियम्बदा प्रेम कै बानी ; तरे दंतवा त्रिन नोक दबाये ।
बाबा त बाटे न आज इहाँ ; कहिके गइने केहू धाम नहाये ॥
छोड़ी के गइनै हमैं सबके ,अपनी धेरिया बदे पुण्य कमाए ।
चारि दिना रुका आवत होइहैं , बिना अइले अब पइबा न जाये ॥
राजा कहै एक बात बतावा , मोरे मन में सुन बाजत तारी !
गावत गइनै इहै पुरखे गुन, बाबा बड़ा है अचारी विचारी ॥
जोगी के कान्ही खेलै बिटिया ,इहै बाति सोहाती ना लागत भारी ।
बाप भला कैसे बननै ;जिनगी भर बाबा रहे ब्रहमचारी ॥

शकुन्तला प्रथम खंड (4) शकुन्तला मिलन

नाहक सोच विचार मैं बाटा तूं , बात बा ई बस नान्ह भरे कै ।
घुमत - घामत ,आवत - जात की ; बाबा येके पवनै उसरे पै
बाप बने तबसे यनकै ,बकी , ई सग खून हयी दुसरे कै ।
पालत - पोखल बाभन है बकी, ई बिटिया हैं केहू ठकुरे कै॥

ओंठसे छुटति बात हहात की ,राजा ख़ुशी मन से बोलत तूती।
जाति कै बानि उहो टूटी गै , भगवान् कै लागत बा अजभूती॥
राही कै रोड़ा हटावत जाल्या , न जानी परै तोहरी करतूती ।
रानी बनी , या कि येके बदे हमहीं के लगावे के परी भभूती॥

बात सही न बतावत बाटू जनात बा देति हऊ तूँ छलावा।
जानि अजान अनारी हमैं, भरमाँय घुमाँय के देलू भुलावा ॥
साफ़ बतावा न तूँ बगदावा, अन्हारे मे न अब बान चालवा।
कइसन ठाकुर कै बिटिया ,बभने घर टूडत लावा ॥
बोली सखी तनी रुखरि हवै; जब चाहत बाटा सुनै तौ सूना ।
गधी सपूत भये कुश वंश में,लागे करै तप दून पे दूना ॥
डोलन लागी जो इन्द्रपुरी तब , देव नरेश मने मन गूना।
लागत बा मोरे आसन पे केहू चोर लगावल चाहत चूना ॥
सूघर छः परी इन्द्रपुरी ,पठए, बस एक सजाय संवारी ।
कै रतिक्रीडा निहाल भये ,ऋषि माटी मिलाई के कीरति भारी ॥
गै जनमाँई के इन्द्रपुरी ,गुरु पाए शकुंतन बीच बेचारी
बाप बने विश्वामित्र क्षत्रिय इन्द्रपरी मेनिका महतारी ॥
सुनतै- गुनतै बनि मूरति,सुरति , ठाढ भये जेस नीद से जागी ।
साँस बढ़ाई के राजा कहै सबकै बस आपन - आपन भागी ॥
'मान न मान बने मेहमान ' भई बड देर घरा अब भागी ।
दूई चारि दिना ; मलिके के बिना रही ,बाबा के बात ई नीक न लागी ॥
दूनऊ ओर से जुझत है , नयना - नयना पे करै जदुवायी ।
देखि संखी हँसि बाँकी हँसी ,चुटकी लै शकुन्तला छेडि हँसाई॥
बाबा हैं अंतरजामी बड़ा ,चिढीहैं न भला मिलि करिहैं बड़ाई।
जाये न देइहैं अकेले तुहैं, संग देइहैं कराय ,वियाह विदायी ॥
मारि बा फूल औ पाथर कै , कहै साधू- सुता तूँ सहै नहीं देबू
चोखि बा तोरि जबान बड़ी ,तन , कटी के खून बहै नहिं देबू ।
आवै दया बाबा के ; मानब ना ,कहबै; केतनो तूँ कहै नहि देबू ।
जाये जो चाहीं त जाये न देबू ;जो चाही रहै तो रहै नहिं देबू ॥
बाति बतास से होलू नाराज तूँ ; फूलल फूल से भइलू बेकाबू ।
धाई शकुन्तला के धई ल्यावै ;कहै ;इन्हैं का कहलीं हम बाबू ॥
जात हईं हमने अपुनै सुधि एक धराइब ना त भुलाबू ।
सेवा बदे कहि गईलें हैं बाबा , त छोड़ कहाँ मेहमान के जाबू॥
प्रीति नई गदराईल बा भल पाय बहार बढे मनमानी ।
भै गन्धर्व वियाह इहाँ मठ कै धेरिया भै राज कै रानी ॥
ई सुघरी बा परी कै लली दुसरे तन साजति आय जवानी ॥
ठुठूर राजा न लागैं लड़ावत खून से खून अ पानी से पानी ॥
बीतल चारि दिना रस बोरल ,जैसे लगे मधु घोरल दोना ।
रात सजल दिनवां सुघराइल चान अ सूरज लागे खेलौना ।।
राजा चिढावत रानी के हैं कोरवां मैं थमावत की मृगछौना ।
बीनि लता से बनी खटिया फुलवै ओढना फुलवै कै बिछौना ॥
राजा करेज लगाय कहैं 'एक बात कही ,मन राज बड़ा बा ।
लागत ना कतहूँ जियरा ,चित मोर होंसईल आज बड़ा बा ॥
ना जानी कईसे कै हॉट उहाँ मोर राज कै काज ,अकाज बड़ा बा ।
जाये दे आज तूँ राज बदे, हर साज़ से माथे कै ताज बड़ा बा ॥
ओंठ कै बानि परै जब कान , त डोलत जैसे करेजे में आरी ।
लाल कली पियराय चली हिरनी अँखिया बनली पनिहारी ॥
का कहला , अब जात हया तोहरे बिन काव बनाई -बिगारी।
सरबस लूट के जाल्या तनी सुधि जल्दी लिहा मोरि लाज कुवांरी ॥
कइसन लाज अकेले तुहार मोरे कुलखूँट कै लाज तूं बाटू।
पौरव वंश कै अंश कहै अब लिलारे कै ताज तूं बाटू॥
फूल अ पाती से ना सजबू अब राज घराना कै साज़ तू बाटू ।
लाख - करोर गुना बढीहैं , जवने मरजाद पे आज तू बाटू ॥
सोना औ चानी कै कंगन चूड़ी ;त हीरा अ मोती कै हार गढइबै।
मान तोरे परगे -परगे सरगे से कुबेर खजाना बिछाइबै ॥
ले मुनरी मोर नांव लिखल एक आखर पे एक रोज़ बितइबै ।
पांच संझौती जरी कइसो छ्ठ्यें दिन सूरज के संग अइबै ॥
ना चाही हीरा औ मोती हमैं दरकार न बा चनियाँ-सोनवां कै ।
ना चाही तिनहु लोक कै राज़ न चाहत सूरज औ चनवां कै ॥
बात इहै सब लोग कहैं दुबिधा ब इहै हमरो मनवां कै ।
पांच दिन कहि जात हया ,जिनगी त लगै चरिये दिनवां कै ॥

शकुन्तला द्वितीय खंड (1)

रात बोलावाति बा दिनके ; दिनवाँ रतिया - रतिया गोहरावे।
सूरज हेरत चान के बा , चनवाँ कहि सूरज हाँक लगावै॥
कइसन आंखि-मिचउवल बा; सब हेरै सबै, केहू खोजि न पावै॥
यइसन राम कै बा करनी , सब भोगत है , कुछ थाह न पावै ॥
फूल कहै फुलवारिन में अब, केहू कली से न रास रचइबै ।
छेड़ी कहै हिरना ,हिरनी के, तोरे संग ना अब घाट नहइबै ॥
बोलत बा भँवरा-भँवरी से ; कि तोके शकुन्तला जइसे बनइबै ।
मानि ले राजा दुष्यंत की नायी ;तोके तजिके हमहूँ चलि जइबै॥
एक घरी जेस पाख लगे, सुधि ;बीन्हती बा उर में बनि हाड़ा।
सांसनी-सांसनी नापति बा , लिखिके ,जेस घोंटती बाय पहाड़ा ॥
आस -निराश त जूझत हैं , जियरा जेस खोदल बाय अखाड़ा ।
भीजै शकुन्तला , ना बदरा , गर्मी न लगै ,नहिं लागत जाड़ा॥
ना जनली हमरे ऊपरा, तोर नेह झरी , बनि जादू औ टोना ।
जाबै भुलाय जवानी बदे, सगरी बचकानी कै खेल-खेलौना ॥
भूख - पियास न लागी मोरे ,फल - फूल छुटी मोर पात औ दोना ।
देखै के बा पियराई में प्रीति के;पीतरी बा कुल ,या कुछ सोना ॥
ना जनली मिलले सुख बा ; अलगे भइले यतना दुःख होई ।
आन कै रूप बसाय हिया अपने अंखिया कज़रा तर रोई ,
फूल बहार तो छोडि चले कुश ,कांट से का अब हार पिरोई ;
छुटली डारि मोरी फरली मोहताज़ भये कचलोई- डिढ़ोई
जेकर आंखि खुलै पहिले, अगले -बगले सबके जे जगावै।
जे मठ काज सहेजि करै,कई; पूजा औ पाठ ,धियान लगावै॥
जे फुद्कै चिरई के तरे अंगना ,भर जे विजुरी यस धावै ।
टेकर हालि बा ,ऊ दिन के , पहिले पहरा तक जागि न पावै ॥
अपने जियरा में हेराइल बा, मुरझाइल बा देहियाँ कै खेलौना ।
मींजत -मींजत लाल भइल जेस ,रेंगत बा अंखिया में किरौना ॥
लोटि- लपेटि के बईठल बा , अंसिया ढुरै; भीजत बाय बिछौना ।
काहें न दीदी दुलारै हमैं; महतारी से पुंछत बा मृगछौना ॥
सूरज जाय लिलारे चढे, परछाईं लुकाय चली गोड्वारी।
आधा दिना बितवै यइसे , नहि दाना कै याद ; न पानी कै पारी ॥
जाय चिढावती है संखिया ,जबरी नहवावती पिटती तारी ।
खाति खियावती हैं मिलिके, अपने हथवें फरहारी नेवारी ॥
ई जरियाइल बा दिनवां ,घुसकै तनिको नहीं गाड़त जाला।
काटत है ,नहि काटे कटे,नहिं छोट परै, बलु बाढ़त जाला।
शूल पे शूल करेज धंसावत; जान करेजे से काढत जाला ।
एक त फूटली बा भगिया दुसरे अगिया धई डाढत जाला ॥
घूमति बा खोरिया - खोरिया लेई चूमती बा मुनरी कै निशानी ।
हेरती बा हेरावावती बा अपनी तकदीर कै एक कहानी ॥
पोंछति हैं अंखिया संखिया मिली गांसती हैं ;भल बाटू तू रानी ।
ई उपवासे कै पूजा है का ; पछिले पहरा तक दाना न पानी॥
बोलति ना बतियावती ना ,सुघरी अंखिया ढुरकावती पानी ।
आपन देंह लुकावती बा , किरवा के तरे मनई अनुमानी ॥
राहि न सूझती; बात न बूझति, पूंछती एक सवाल जबानी ।
केकर सूरज डूबै कहा ; हमरी के तरे दिनवै लरकानी॥
सांझ ढली तो ढलै नाहीं देबै , संझौती कै दीया जरै नहीं देबै ।
पूजा औ पाठ कै बात कहाँ , मठ पै केहूँ माथ धरै नहीं देबै ॥
डोलै न देबै बतास इहाँ, पतवा पेडवा से झरै नहीं देबै ।
जीयब नहीं ;जीये नहीं देबै ; औ मरब नाहीं, मरै नहि देबै ॥
सूरज ना अथया अबहीं ,मोरी ;मान्या त लाल रह्या कुछ देरी ।
आंखि अगोरती बा रहिया अब ,जीभ लगावती बा बस टेरी॥
लागत बा भरमाइल बाटे ऊ राजा के राज में छउले अन्हेरी।
कइसे खियाल हमार करै, तजि लाखन रानी ,करोरन चेरी ॥
धुधुर भै रहिया बटिया अब ;छावती बा अन्हियारे कै छाई ।
राही बटोही जे बा पछरा;बनि डोलत हैं कजरी परछाईं ॥
धावत -धुपत आवत हैं;कहि, डोलत बा अँखियाँ मोर बायीं।
हे भगवान सहाय लग्या, रहिया में फिर बड़ा चोर औ चायीं॥
एक तरइया से दुसरि भै , तिसरी-चौथी अब गीनत बाटी ।
बान्हन तोरि बिधाता कै हम ; अपनी तकदीर के बीनत बाटी ॥
मोम के छीनी हथौड़ी से हम ,पथरा छतिया धई छीनत बाटी ।
आगि करेजे में बारि के हम ओनके बदे बिंजन रीन्हत बाटी ॥

शकुन्तला द्वितीय खंड (2)

घेरत बा बदरा अँचरा पुतरी ,बदरी बनि चुवती आवै ।
ओही में चान हेराइल बा ,सुधिया तरई तरे ऊवति आवै॥
लागति बा ई बयार हमै जेस तोरे सिवाने के छुवती आवै ।
यइसे सनेही पे बज्र परै जे न जीयति आवै न मुवति आवै॥
ई अलसाइल बा देहियाँ अंखिया न झपे, नहि आवै ओहांई ।
दाबि के राखे दूनो ओठवा , भीतरे भितरा भरि आवै रोवाई ॥
आँचर टोंग दवाई मुहां बपुरी ; बनि बइठल बाय लुकाई ।
के के अंगोरति पुछै बदे रतिया चढ़ी आधी मुडेरे पे आयी ॥
सोचे मनै मन बात इहै , फिर से धनु बान चलावत आवा ।
चान - तरइया न देखै तूहैं ; सबके अंखिया से बचावत आवा ॥
सोवली आस , हताश हिया , अल्हरी निनियाँ तूँ तोरावत आवा ।
बालू भले बा करेजे के घाट तूँ ; नेह नाय चलावत आवा॥
तीसर बा पहरा रतिया कै अकेले-अकेले बड़ी डर लागै ।
ई सुनसान कै तान -बेतान कि साथ मोरे अब ना केहू जागै ॥
देखा हमै न सतावा बहुत मोर कांच करेज बड़ा अनुरागै ।
लागत बा हमरी पजरी तोहरी , चिठिया केहू बाँचि के भागै ॥
हे पुरुवंश लिलारे कै लाजि, मोरी लजिया कै लुटाया न पानी
राजा हया तो नियाव करया, बिसराया न अन्न ,भुलाया न पानी ॥
ई मेहरारू कै इज्ज़ति बा अंगना -अंगना मे लुटाया न पानी ।
पानी तरै -तर बहै दिहा कहूँ माथे की ओर चढ़ाया न पानी ॥
बांक लगावत बा मुरगा अब लागति बा भिनसारे कै बेला ।
ऊवत बा शुकवा पछिलहरे कै , लागत बा उजियारे कै बेला ॥
पूजन - पाठ औ जोग कै जूनि बा लागत प्रान अधार कै बेला ।
रात गइल ,अब आइल बा सबके अंगना औ दुवारे कै बेला ॥
कइसन सूरज आज ऊई ,ओकरे घमवाँ से निचोरब सोना ।
बेंचि बाज़ार मंगाई के माहुर ,खाई के सूतब धई एक कोना ॥
माटी कै बा जिनगी मिलि जाई कबों मटियै में ई माटी कै लोना ।
जीयै के ना ,चढ़ी बोलत बा हमरे मथवा तोर जादू औ टोना ॥
यइसन सोचि- बिचार में बूडलि जाति शकुन्तला घूललि जाले।
झुर भइल लपची देहियाँ ,सुखली डरिया बनि झूललि जाले॥
कइसन खेल करैं भगवान् कि तोपलि बात ऊ खुललि जाले ।
ध्यान करैं जेतना दुसरे कै वही तरे आपन भूललि जाले ॥

शकुन्तला दूतीय खंड (3)

जंगल के पशु पाखी कहें , अपनै देहिया भल दागति बाटू ,
छोड़ि के अन्नपानी सबै , जियतै मुरदा यस लागति बाटू

ढूरित बा अंसिया अखिया , मोतिया अचरा धैई तागति बाटू ।
फुटली भाग तुहार शकुंतला, सुतति बाटू की जागती बाटू । ।

रोवती बा चकई कतहु , चकवा नदिया पे उदास पियासा ।
कइसे रही अपने अगवें पलटै, केहू कै तकदीर कै पासा । ।
कांपती बा रहिया - बटिया, पतिया झरै पेड़ से दुरत लासा ।
केहू के भागी पे आग धरै , जनु धावत आवत है दुर्वासा । ।

सूरज बंद करे अखिया, कहू , धैएके करजे बतास पडावा ।
चान तरीया लुकाई फिरे जनु, होवन चाहे अनर्थ बदबा । ।
बान्हल जात बा पंख तुहारत, सोनन चानिन कै पिंजरा बा ।
याद में भुलली बा बिटिया, रिसिहा - योगिया अगवारे खड़ा बा । ।
चारिउ ओर लखे दुरबासा , केहू केहुओर परे न देखाई ।
क्रोध मे कापती बा देहिया, बदरी अंखिया अनहरी - खउनही । ।
माला औ मंत्र कै ध्यान कहा, पनिया औ कमंडल देने बहाई ।
भौं टरेरी गुरेरी के फेरिके , देने सराप ई हाथ उठाई । ।
सुन आकाश रही न रही, तोहरे अंगना अब चाँद न आयी ।
जियत तू रहबू तबका, तोहके, जिनगी कै सवाद न आयी । ।
ना कबो येइशन भईल रहल, अगवा कवनो दिन बाद न आयी ।
ना चिन्हालू जकेरे सुधि , ओके, बिना मुनरी तोर याद न आयी । ।
ना जनले अभेई पगली, यतनै छन मे केतना कुछ भइने। ।
खांचे कही तकदीर विधाता, केहू हथवा बिन चिन्हा के कईनै । ।
जाय समुद्र आकाश समांइल, सूरज, चान समुद्र समइने ।
साजिल भागी के तौंगे तोरे, दुरबासा ई आगि लगावत गईनै । ।
जोहती बा असरा लईके, दिन, जागती बा , रतिया नहीं सोवे ।
धीरज कै बनहना जेस टूटत, ले अंचरा मुहं दापी के रोवे । ।
गौरी - गणेश उठावती है जो कै , जरई अंगना भरी बोवे ।
तीरथ से जब अइले है बाबा, सबै पारी परमे से धोवें । ।
हेरती बाबा कै , बा नेहिया, जइसे केहू नैन कै ज्योति हे राइल।
देरी वदे रिसीयाइल बा, या, चीरहवे बदे कतहू बा लुकाइल । ।
व्इसे त अंतरजामी रहे, सुनिके, ई बियाह मना भरी आइल ।
लागत बा यंही लाजन से, बिटिया मोसे भेंटी करें नही आइल । ।
बाबा बोलावात तेरी शकुंतला, माफ़ी दे, आपन फीस लै ले ।
छोड़ी के न अब जाबे कहीं , बचली जिनगी कै बरिस तै लै ले । ।
मानि जोते अबकी बेरीया, तीरबाचा , मोसे दस- बीस तै लै ले ।
ना सग बाप, तबो पोखवइया, बियाहै कै आय आशीष तै लै ले । ।

शकुन्तला दुतिय खंड (५)

चान तरे टेढ़वा मथवा बुनकी, जेस लागती है तरई बा ।
भौह कमान तनी मछरी , अखिया, में धसें कजरा नरई बा । ।
ओठ ललाई लगे जेस उबली, बा धनुही बरखा कै नई बा ।
ना गिरिजाय कही बिजुरी , अबही बढ़ नांह लगे जरई बा । ।

हार बनै कचनार कै फूल, लोंढे छतिया पे करेज में झाक़े ।
पोरे पोरे कसी मुनरी नग, गीत लड़े चुरिया कंगना कै । ।
हाथ गदोरी रची मेंहदी , भल गोंढ ललाई लगे रंगना कै ।
हेरति खोजति जाति जवानी , जनो अंगना अपने सजना कै । ।

आगे चले गुरु औ गुरुबेटी, कि चीनह धरे पिछवै सब डोले ।
होत हज़ार करेजे कै टुक, ढ़ूरै अखिंया मुह से नहीं
भटति देति सबै अक्वारी तरे, सुसुके मुहवा नहीं खाले ।

तोर बिदाई लगे सबके जइसे जियरा तरवारी से छोले ..

शकुन्तला दुतीय खंड (४)

येइशे कटे लगने दिनवा, नहीं अइनै दुष्यंत , न भेजे सनेशा ।
जोहती बा रहिया, रतिया मन, अइहै कै लागै अनेशा । ।
छोरति बा गठिया जिनगी कै, उधेरति बिनटी रेशा पे रेशा ।

लागति इन्द्रपरी तरे जे उ, बनउले बा आज फकीरे के भेषा । ।
आवत जात की देखत बाबा, कहें तकदीर कै लेख के मेटी ।
भें गोरकी देहिया कजरी , खखरायेल, बा गली माँशु कै पेटी । ।
देखत की भभरे अखिया, मन चाहत धे अकवारी में भेटी ।
राखल ना भल ढेर दिना अपने , अंगना में बिहायल बेटी । ।
रोज विचार करे मिलिके, सब बाबा औ आश्रम कै रहवइया ।
धार, उधार बही कैइशे , नहीं, नाय चली बिन एक खेवइया । ।
होई बिदाई शकुन्तला कै , अनुमाने सबै मिली चान तरेइया ।
छुटी सखी परिवार सबै गैईया, मइया , मिरगा, गुरु भइया । ।

भोर भये खुलली अखिया, सखिया, मिली जाय जगावती बाटी । ।
नाव शकुन्तला कै लइकै, भरी हांक पे हांक लगावति बाटी । ।
नेह कै दूरत बा झरना गितिया, शुभ कै मिली गावती बाटी। ।
मिजी सबै नहवावती बाटी औ, पोरई पोर सजावटी बाटी । ।
गोर अंगार त बाटी तबों , हरदी उपटावन मीजल जाली ।
साजी सिंगर करें सोरहो, ओकरे उपरा खुद रिझल जाली । ।
रेहन होते सनेह कै खेत यही , अंचिया तर सीझल जाली ।
हाले करेज बिछोह कै गीत, धूरे अंखिया सब भिजल जाली ।
बानहत बार , गुथे चोटिया केहू , काने में डारत कुंडल बाली ।
फूलल फूल बनै गजरा, जुरवा में , जरे मिली हाली अ हाली । ।
आंचर ओढ़ी ओढाई के देखत, डारत सुन्दरताई कै जाली ।
कर्धीन बा करियारी में बानहिल झुलती बा भल घुघुर ताली । ।

शकुन्तला दुतीय खंड (५)

सोचत हैं पशु -पांखी सबै , हमरे सुख कै दिनवां हरि गइनै , रोवत -धोवत आठ चलें, सगरो बन कै कोनवाँ भरि गइनै । देई के पानी ,दुलारी हमें नन्हवाँ विरवा,मिरगा डरि गइनै , आगे खड़ा पेड़वा लरकै ,सगरो ,पतिया फुलवा झरि गइनै ॥

शकुन्तला द्वितीय खंड 6

रोई कहै मृगबाल खड़ा , तोहके अपने से भुलाये न देबै।
रोकि बतास बहार कहै अबकी , फुलवा के फुलाये न देबै ॥
मींजति आँखी कहै बदरी ,बरखा में केहू के नहाये न देबै ।
गोड़ लपेटि लता बिलखे, अपने घर से तूहैं जाये न देबै॥

शकुन्तला 12

pk�u vUgkjs esa vkor gS]

fnu ybds tgku esa lwjt vkoSA

lk�>&fogku dS jax xqykch]

ds jkst yxkoS] ds jkst feVkoS \

ckfx yxkoS] ds Qwy QqykoS]

unh ds dNkjs crkl MksykoS \

;blu jkt dS jktk ck ds(

ts fu;kc is vkiu jkt pykoS \

�ijk cbBy tx&thry jktkA

lktfy ck [kksfj;k&[kksfj;k]

Hky cktr ck eu eksgd cktkAA

ckHku cbBy gSa cxys] vxok�]

cbBS lc lSu lektkA

Qwyfy ugha lekfr �kdqUryk]

Hkwyfy ;kn Hkby fQj rktkAA

tblu dkus lqukr jgy]

ogqls ofj;kj nqokj fdyk ck!

iwjc&if�pe&m�kj&nfD[ku]

pkjks fn�kk ls floku feyk ckAA

tsds fugkjS rSa jkr&fnuk]

u;uk rksjs vkxs � :i f[kyk ckA

Qjdfr nkfgu vk�[k rcS]

vugksuh fcpkfj djst fgyk ckAA

शकुन्तला 14

रोई कहै मृगबाल खड़ा ,तोहके ,अपने से भुलाये न देबै ,
रोकि बतास बहार कहै ,अबकी फुलवा के फुलाये न देबै /
मीजति आंखि कहै बदरी ,बरखा मे केहू के नहाये न देबै
गोड़ लपेटि लता बिलखै अपने ,घर से तुहै जाये न देबै //
आगे पडै पशु -पंखी कै बाल,उठावति चूमि दुलारति जाले,
बेला -चमेली के दै अंकवारि ,लगाय करेजे संवारति जाले /
नेह कै पेड़ नेवारी न सूखै, पियासे न केहू तिखारति जाले,
बाबा ! मंगइबा हमै कहिया ,कहि आगि हिया उद्गारति जाले//
बाबा आशीषें ढुरै अंखिया कहैं ,जा बिटिया मोर मान बढ़ावा ,

राजा कै तू उरहार बना ,बढी,रानी शर्मिष्ठा कै तू पद पावा /
शान बढ़ावा दूनोघर कै ,कनियाँ , दुनिया कै नरेश खेलावा ,
जीवन जीति के तूँ सगरो ,चौथेपन में हमरे घर आवा //









शकुन्तला 15

बाबा करेज ढुरै बदरा ,अंखिया ,बरसै बनि मास सेवती ,
लोटि-लपेटि के भेंटति है ,जैसे भिनसारे कै दीया औ बाती /
सोचै कि होत विदा बिटिया ,सुसुकै वन पशु , फूल औ पाती,
यइसन हाल हमार जो बा ,भला फाटै न कइसे गिरहस्ते कै छाती //
जा जल पूजन- वन्दन कै ,वनदेवी के फूल चढ़ावा ये बेटी ,
छोड़ति बाटू सिवान हमार,सिवाने के माथ नवावा ये बेटी /
छोडि के मोहि -मया यहिकै ,अगिले घर लगि लगावा ये बेटी ,
मान बढौलू तू नैहर कै ,ससुरारी कै शान बढ़ावा ये बेटी //
जा जल वन्दन करा शकुंतला ,या अपनी तकदीर के भूजा ,
खांचल लाल लिलार पे जौन बा ,होई उहै, नहि होवै के दूजा //
मानल बा पपिहा बनि रोवै के,कइसे भला बनी कोइल कूजा,
भागि जरै जवने में पुजारी कै, ना सुनली यस पानी कै पूजा //
पानी के पूजन बंदन में ,मुनरी दुष्यंत कै खोवती जाले ,
राजा मिलें ,मिली राजघराना मनें-मन माला पिरोवती जाले //
जीवन कै सुघरा सपना ,नयना ,अयना में संजोवती जाले ,
रोवती जाले निहारी के नइहर ,सासुर कै पथ धोवती जाले //
________*****#*****_________